दहेजु पिया.. (सोच बदलो समाज बदलो)

दोस्तों अभी शादी-विवाह का मौसम गरमाया है और मुख्यमंत्री जी ने भी दहेज़ मुक्त बिहार का नारा दिया है पर असर कुछ कम है कुछ लोगों का नाम पेपर में पढ़ा मैने दहेज़ न लेते हुए लेकिन बस कुछ लोगो का ही शादी – विवाह हो और दहेज़ ना हो हमारे समाज में तो शायद शान में कमी हो जाएगी और हो क्यों ना मूंछ पर ताव जो देना है हमारे बेटे को इतना मिला हमने इतना दिया अपनी बेटी को भाई सामाजिक दिखावा जो बन गया है दहेज़ .

 

नारी समाज मुझे आग के हवाले कर दे अगर मै दहेज़ की वकालत करू तो क्योकि मै भी दहेज़ लेन – देन के खिलाफ हूँ चाहे वो एक रुपये का हो या करोड़ का क्योकि मैने कई परिवारों को टूटते हुए देखा है इस दहेज़ जैसे सामाजिक बीमारी के कारण .

 

कुछ सीधे – साधे टाइप के या कोर्ट या मंदिर में शादी करने वाले लड़के नहीं चाहिए उन्हें चाहिए लड़का सलमान खान जैसा हो एक सरकारी नौकरी करने वाला हो भले ही वो पहले रोड साइड रोमियो ही क्यों न हो लड़की के पिता की सोच होती है की लड़की कुछ किये बिना वेल सेटल हो जाए तो गंगा नहा ले बस मेरे दरवाज़े पर शहजादे की बारात आये फिर समाज मे रिसेप्शन देंगे झूठी शान झूठा रुतबा दिखायेगे .

 

ये चाहत लोभ दहेज़ का असल कारण है ?????

जहाँ लड़के का टैलेंट उसका गुण अवगुण पैमाना नही होता ?

 

सर आइजेक न्यूटन से ज्यादा काबिल लड़की के पापा जी भी दहेज़ पर भाषण मार रहे होते है लेकिन बेटी की शादी पटवारी सरीखा कोई सरकारी दामाद से ही करेंगे .

अच्छा सर आइजेक न्यूटन टाइप फादर से पूछने पर की सर सुप्रीम कोर्ट के आदेश अनुसार पिता की संपत्ति पर बेटी का भी 25% हक़ है देंगे की नही ??

 

हमारा समाज पुरुष प्रधान है . हर कदम पर केवल पुरुषों को बढ़ावा दिया जाता है . बचपन से ही लड़कियों के मन में ये बातें डाली जाती हैं कि बेटे ही सबकुछ होते हैं और बेटियां तो पराया धन होती हैं . उन्हें दूसरे के घर जाना होता है, इसलिए माता-पिता के बुढ़ापे का सहारा बेटा होता है ना कि बेटियां लड़कियों की पढ़ाई में खर्चा करना बेकार है . उन्हें पढ़ा-लिखाकर कुछ बनाना बेकार है, पर आखिरकार उन्हें दूसरों के घर जाना है समाज में ये सोच कुछ लोगों की बदली है पर पूरा समाज इससे मुक्त नहीं हुआ है .यही नहीं लड़कों पर खर्च किए हुए पैसे उनकी शादी के बाद दहेज में वापस मिल जाता है. यही कारण है माता-पिता बेटों को कुछ बनाने के लिए कर्ज तक लेने को तैयार हो जाते हैं . पर लड़कियों की हालात हमेशा दयनीय रहती है, उनकी शिक्षा से यादा घर के कामों को महत्व दिया जाता है. इस मानसिकता को हमे परिवर्तित करना होगा . ज्‍यादातर माता-पिता लड़कियों की शिक्षा के विरोध में रहते हैं . वे यही मानते हैं कि लड़कियां पढ़कर क्या करेगी . उन्हें तो घर ही संभालना है . परंतु माता-पिता समझना चाहिए कि  पढऩा-लिखना कितना जरूरी है वो परिवार का केंद्र विंदु होती है . उसके आधार पर पूरे परिवार की नींव होती है .उसकी हर भूमिका चाहे वो बेटी का हो, बहन का हो, पत्नी का हो बहू का हो या फिर सास पुरुषों की जीवन को वही सही मायने में अर्थ देती है .

 

@ बिकेश्वर त्रिपाठी