बसंती हवा – केदारनाथ अग्रवाल| Basanti Hawa

बसंती हवा – केदारनाथ अग्रवाल| Basanti Hawa

हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ। सुनो बात मेरी -अनोखी हवा हूँ।

        बड़ी बावली हूँ, बड़ी मस्तमौला।

        नहीं कुछ फिकर है, बड़ी ही निडर हूँ।

        जिधर चाहती हूँ, उधर घूमती हूँ,

 मुसाफिर अजब हूँ। न घर-बार मेरा,

न उद्देश्य मेरा,न इच्छा किसी की,

न आशा किसी की,न प्रेमी न दुश्मन,

जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ।

हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!

जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं –

      शहर, गाँव, बस्ती,नदी, रेत, निर्जन,

     हरे खेत, पोखर, झुलाती चली मैं।

     झुमाती चली मैं! हवा हूँ,हवा मै  बसंती हवा हूँ।

चढ़ी पेड़ महुआ,थपाथप मचाया;

गिरी धम्म से फिर,चढ़ी आम ऊपर,

उसे भी झकोरा,किया कान में ‘कू’,

उतरकर भगी मैं,हरे खेत पहुँची –

वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी।

hava hoon, hava main basanti hava hoon. suno baat mere -anokhi hava hoon.

पहर दो पहर क्या,अनेकों पहर तक

     इसी में रही मैं! खड़ी देख अलसी

     लिए शीश कलसी, मुझे खूब सूझी –

     हिलाया-झुलाया गिरी पर न कलसी!

     इसी हार को पा, हिलाई न सरसों,

     झुलाई न सरसों,  हवा हूँ, 

हवा मैं बसंती हवा हूँ!

मुझे देखते हीअरहरी लजाई,

मनाया-बनाया,न मानी, न मानी;

उसे भी न छोड़ा -पथिक आ रहा था,

उसी पर ढकेला;हँसी ज़ोर से मैं,

हँसी सब दिशाएँ,हँसे लहलहाते

हरे खेत सारे,हँसी चमचमाती

भरी धूप प्यारी;बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!

हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!

केदारनाथ अग्रवाल

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