शिक्षक, साहित्य समाज का दर्पण है- घनश्याम

बलिया, बेगूसराय। गुरु-शिष्य की कहानियों को हम लोग आज भी सुन रहे हैं। अपनी संस्कृति सभ्यता के माध्यम से जहां माता-पिता के बाद तीसरा स्थान गुरु को दिया गया है जो हमारे इतिहास में भी वर्णित है। जहां गुरु के लिए शिष्य अपना अंगूठा काटकर गुरु को गुरु दक्षिणा में दे दिया। जहां गुरु को शिष्य के लिए सर्वोच्च स्थान दिया गया है। वही आज के दौर में गुरु की महत्ता धीरे-धीरे घटती जा रही है। वर्तमान समय में आर्थिक स्थिति को देखते हुए गुरु के प्रति ना तो शिष्य का ज्यादा लगाव है ना ही अभिभावक का।हमारे देश की अर्थव्यवस्था को देखते हुए आज हमारे यहां केवलपूंजीपतियों
को सम्मान दिया जाता है। हमारे यहां यदि कोई कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है तो कार्यक्रम में उद्घाटन कर्ता के रुप में या मुख्य अतिथि के रुप
में बड़े-बड़े नेता, जनप्रतिनिधि या बड़े बड़े अधिकारी आते हैं, लेकिन यह नेता या अधिकारी को शिक्षित करने वाले एक शिक्षक को कभी किसी भी
कार्यक्रम में उद्घाटनकर्ता या मुख्य अतिथि के रुप में नहीं देखा गया है। शिक्षक तो बस शिक्षक है जिसे सरकार भी तड़पा रही है। उनकी तनख्वाह 6 से 7 महीने बाद मिलती है। उनके बच्चे भूखे हैं उन्हें क्या मतलब उन्हें तो बस ड्यूटी से मतलब है। स्कूल जाना है यदि समाज को शिक्षित करने वाले
ही भूखे मर जाएं तो फिर समाज शिक्षित कैसे होगा? यही वजह है कि आज के दौर में गांव-देहातों में शिक्षा का स्तर गिरता नजर आ रहा है। उपरोक्त सारी बातें उच्च विद्यालय के शिक्षक घनश्याम कुमार ने एक इंटरव्यू के दौरान बातचीत में कही।



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