भारत की राजनीति में महिलाओं के साथ “राजनीति”

    आज हम चाहे कितने ही आगे निकल गए हो लेकिन हमारी सोच आज भी वही है “रूढ़िवादी”

    आखिर कब तक हमें और धोखा दिया जाएगा कब तक हमारे अधिकारों से हमें वंचित रखा जाएगा आप सोच रहे होंगे कि मैं किस हक़ की बात कर रही हूं तो मैं अपनी चुप्पी तोड़ते हुए यह कहना चाहती हूं कि आखिर कब तक राजनीति में महिलाओं की आधी भागीदारी को नहीं ली जाएगी।

    आखिर क्या कारण है कि सभी दल इस बहस में अपनी चुप्पी साध लेते हैं वह हमें उपदेश देते हुए तो मिल जाते हैं पर जब वक्त आता है बदलाव का तो सभी इस फाइल को दबाने में लग जाते हैं।

    आज जहां महिलाएं हर क्षेत्र में अपने उपलब्धि से सबको चौंका रही है और अपनी अलग ही छाप छोड़ रही है वही राजनीति में इसकी भागीदारी पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है।

    अगर बात की जाए सदन की तो मात्र 11% (61) महिला प्रतिनिधि लोकसभा में तथा राज्यसभा में मात्र 28 महिला प्रतिनिधि है। जिनमें से मात्र 7 केंद्रीय मंत्री हैं पिछले सरकारों की तुलना में इनकी संख्या कुछ बढ़ी तो है परंतु यह कुछ कब तक लगा रहेगा?

    नतीजे चौंकाने वाली हैं पर इसमें बेहस कोई नहीं करना चाहता तो आखिर यह हमें बताना क्या चाह रहे हैं? क्या महिला योग्य नहीं? या फिर यह कि महिला की भागीदारी से पुरुषों की भागीदारी और जमाखोरी में कमी हो जाएगी।

    सितंबर 1996 में संविधान संशोधन 108वां जो की महिला राजनीति आरक्षण 33.3% पर था। जो तीन बार सदन से लौटाया जा चुका है। यह राज्यसभा में पारित हो जाता है परंतु लोकसभा में अटक जाता है।

    पंचायत एवं स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए किए गए 33% (कई स्थानों पर 50%) आरक्षण के परिणाम बताते हैं कि महिलाओं ने ग्राम पंचायत से लेकर जिला और ब्लॉक स्तर पर आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में विकास के लिए प्रभावी काम किया है ऐसे में उन्हें अगर लोकतांत्रिक निकायों में आरक्षण का लाभ दिया जाए तो इसे राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर सामाजिक आर्थिक क्षेत्र में बदलाव आ सकते हैं।

    यह अजीब विडंबना है कि कुछ राजनीतिक दलों के नेता यह कहते हुए दिखे थे कि या एक खतरनाक विचार है जो लोकसभा के चेहरे को ही बदल देगा।

    राजनीति में आज मात्र 18. 42% महिलाओं के लिए सीट आरक्षित है जो किसी व्यंग से कम नहीं है हम बात करते हैं महिला सशक्तिकरण की तो फिर ऐसे में क्या महिला सशक्त हो पाएगी?

    73वां संविधान संशोधन 1992 जिसमें 50% आरक्षण की बात है। जहां 33% में विवाद चल रही वहां 50% का तो प्रश्न ही बनकर रह गया है। आखिर यह कब तक?

    बात की जाए समाज सुधार की तो इसमें अगर महिला की हिस्सेदारी बराबर कि नहीं होगी तो फिर समाज कैसे सुधरेगा और फिर हम चाह कर भी आगे नहीं बढ़ सकते। महिलाएं हर क्षेत्र में सक्षम योग्य और जुझारू है उसे आगे आने नहीं दिया जा रहा है। हमारी विकास की गाड़ी मात्र एक पहिए से नहीं दौड़ सकती इसमें दोनों की बराबर की भागीदारी होनी चाहिए।

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