हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ। सुनो बात मेरी -अनोखी हवा हूँ।
बड़ी बावली हूँ, बड़ी मस्तमौला। नहीं कुछ फिकर है, बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ, उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ। न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ। हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!
जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं – शहर, गाँव, बस्ती,नदी, रेत, निर्जन,
हरे खेत, पोखर, झुलाती चली मैं। झुमाती चली मैं! हवा हूँ,हवा मै बसंती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ,थपाथप मचाया;गिरी धम्म से फिर,चढ़ी आम ऊपर,उसे भी झकोरा,किया कान में ‘कू’,उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी।
पहर दो पहर क्या,अनेकों पहर तक इसी में रही मैं! खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी, मुझे खूब सूझी – हिलाया-झुलाया गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा, हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों, हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!
मुझे देखते हीअरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!
– केदारनाथ अग्रवाल
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